धड़कनों में फांसला, महसूस हो रहा है
हर सांस का ज्यूँ रास्ता, कुछ दूर हो रहा है
खुली आँखों में जो, पसरा है सन्नाटा
बंद आँखों से बस, दूर हो रहा है
सो गयी है रात, ना ये दिल सो रहा है
बस टिमटिमाते ये तारे, और चाँद खो रहा है
आधे की याद में, अधूरा हो रहा है
बेकरार बस आधा, पूरा हो रहा है
Saturday, August 24, 2019
Sunday, June 23, 2019
उबाल
बरसेंगे बादल जमकर, घटाओं ने समंदर पिया है
भीगेगा किनारा बड़ी दूर तलक, सागर ने सब्र बहुत किया है
सन्नाटा है पसरा हुआ, तूफ़ान छुप छुप कर जिया है
टूट गिरेगा चाँद गगन से, तारा तो बहुत टूटा किया है
चलते हैं कदम, गुज़रता है वक़्त भी, किनारा रास्ते से मन ने किया है
धड़कती हैं आँखें, भीगता है दिल, ख़ामोशियों ने लबों को सिया है
खुली पलकों में नदारद है जो, बंद पलकों से हाँसिल किया है
अँधेरे में आँखों को नज़र मिली है, उजालों ने फ़क़त छला ही किया है
भीगेगा किनारा बड़ी दूर तलक, सागर ने सब्र बहुत किया है
सन्नाटा है पसरा हुआ, तूफ़ान छुप छुप कर जिया है
टूट गिरेगा चाँद गगन से, तारा तो बहुत टूटा किया है
चलते हैं कदम, गुज़रता है वक़्त भी, किनारा रास्ते से मन ने किया है
धड़कती हैं आँखें, भीगता है दिल, ख़ामोशियों ने लबों को सिया है
खुली पलकों में नदारद है जो, बंद पलकों से हाँसिल किया है
अँधेरे में आँखों को नज़र मिली है, उजालों ने फ़क़त छला ही किया है
Tuesday, June 4, 2019
Dejected
Unexpected falls... expectation emerges
Unwanted manifests... want surges
Commitment mounts... consideration endures
Affection starts... love ensues
Loved departs... love survives
Ticker ticks... pain thrives
Touch vanishes... feel remains
Absence in eyes... heart retains
Reality sways... fantasy holds
Character changes... play rolls
Tuesday, May 21, 2019
तत्वार्थ
ना तू ये शरीर है, ना ये शरीर ही तेरा है
मेरे तेरे का ही तो, बस ये सारा फेरा है
पानी कहीं सोता, कहीं नदिया, तो कहीं सागर होता है
शीतलता न कभी कम होती, नमक बस कहीं ज़्यादा तो कहीं कम होता है
भविष्य था कल वो, वर्तमान जो, कल अतीत हो जायेगा
गति न कभी कम होगी, बस अनुकूल कभी प्रतिकूल समय व्यतीत हो जायेगा
कल बचपन में, आज बड़ा जो, कल माटी हो जायेगा
बदला जब जो, स्वरूप था तब वो, स्वरूप बदलता जायेगा
ना बदले जो, सनातन बस वो, तत्व बोध हो जब जायेगा
ज्ञान जो "केवल", गुण बस तेरा, आत्म बोध हो तब जायेगा
तत्वार्थी,
अंकित
मेरे तेरे का ही तो, बस ये सारा फेरा है
पानी कहीं सोता, कहीं नदिया, तो कहीं सागर होता है
शीतलता न कभी कम होती, नमक बस कहीं ज़्यादा तो कहीं कम होता है
भविष्य था कल वो, वर्तमान जो, कल अतीत हो जायेगा
गति न कभी कम होगी, बस अनुकूल कभी प्रतिकूल समय व्यतीत हो जायेगा
कल बचपन में, आज बड़ा जो, कल माटी हो जायेगा
बदला जब जो, स्वरूप था तब वो, स्वरूप बदलता जायेगा
ना बदले जो, सनातन बस वो, तत्व बोध हो जब जायेगा
ज्ञान जो "केवल", गुण बस तेरा, आत्म बोध हो तब जायेगा
तत्वार्थी,
अंकित
Monday, March 25, 2019
बचपन का बढ़प्पन
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
सरल था जीवन, जब समझ कम थी
समझदार बनकर तो, सब जटिल ही पाया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
छोटी छोटी बातों में, बड़ी ख़ुशी खोज लेते थे कभी
अब बड़ी बड़ी बातों में, छोटी सी ख़ुशी को भी लापता पाया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
गिरता सम्हलता, छोटे नन्हे पैरों पर चलता, बचपन दिलों के कितने क़रीब था
बढ़े पैरों से चलते चलते, जाने कितनी दूर निकल आया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
काफी होता था कट्टी होने के बाद, सिर्फ़ मुँह पर दो उंगलियाँ रखकर दोस्त कहना
अब बातों की गहराई में जाने के मान वश, बमुश्क़िल ही कोई टूटा दिल जुड़ पाया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
पल में रूठना, पल में मान जाना, छोटा सा निश्छल, मासूम सा था दिल
बड़ा तो बहुत हुआ अब, पर मासूमियत कहीं बचपन में ही छोड़ आया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
मतलब का मतलब मालूम न था जब, बेमतलब जहाँ के मतलब होते थे
मतलब का मतलब मालूम कर करके अब, बेमतलब के चक्रव्यूह में, जीवन फसा पाया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
बचपन में अंकित...
सरल था जीवन, जब समझ कम थी
समझदार बनकर तो, सब जटिल ही पाया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
छोटी छोटी बातों में, बड़ी ख़ुशी खोज लेते थे कभी
अब बड़ी बड़ी बातों में, छोटी सी ख़ुशी को भी लापता पाया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
गिरता सम्हलता, छोटे नन्हे पैरों पर चलता, बचपन दिलों के कितने क़रीब था
बढ़े पैरों से चलते चलते, जाने कितनी दूर निकल आया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
काफी होता था कट्टी होने के बाद, सिर्फ़ मुँह पर दो उंगलियाँ रखकर दोस्त कहना
अब बातों की गहराई में जाने के मान वश, बमुश्क़िल ही कोई टूटा दिल जुड़ पाया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
पल में रूठना, पल में मान जाना, छोटा सा निश्छल, मासूम सा था दिल
बड़ा तो बहुत हुआ अब, पर मासूमियत कहीं बचपन में ही छोड़ आया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
मतलब का मतलब मालूम न था जब, बेमतलब जहाँ के मतलब होते थे
मतलब का मतलब मालूम कर करके अब, बेमतलब के चक्रव्यूह में, जीवन फसा पाया
बचपन का बढ़प्पन बढ़े होकर समझ आया
बचपन में अंकित...
Tuesday, February 12, 2019
चाहत
चाहत, कितनी अजीब होती चाहत
शायद न कोई इतना, जितनी अज़ीज़ होती चाहत
चाहत कभी ज़्यादा की, तो कभी कम की चाहत
चाहत कभी ख़ुशी की, तो कभी ग़म की चाहत
चाहत कभी पाने की, तो कभी खोने की चाहत
कभी खिलखिलाकर हँसने की, तो कभी रोने की चाहत
कभी कुछ होने, कभी कुछ न होने की चाहत
कभी राह गुज़रने, तो कभी जोने की चाहत
होंठों पर हँसी, तो आँखों में नमी की कभी चाहत
आसमां छू लेने, तो ज़मीं की कभी चाहत
चाहत किसी को चाहने, तो नज़रें चुराने की कभी चाहत
चाहत कभी नए, तो कभी बस पुराने की चाहत
बढ़े होने, तो कभी बचपन में रह जाने की चाहत
कभी लड़ पड़ने तो कभी सह जाने की चाहत
कभी बेपर्दा, तो कभी चिलमन में छुप जाने की चाहत
कभी दिल खोलने तो कभी चुप रह जाने की चाहत
चाहत ही शायद आदि, और अंत भी बस चाहत
चाहतों का चक्रव्यूह तोड़ना भी, तो आख़िर है चाहत
चाहतों में अंकित
शायद न कोई इतना, जितनी अज़ीज़ होती चाहत
चाहत कभी ज़्यादा की, तो कभी कम की चाहत
चाहत कभी ख़ुशी की, तो कभी ग़म की चाहत
चाहत कभी पाने की, तो कभी खोने की चाहत
कभी खिलखिलाकर हँसने की, तो कभी रोने की चाहत
कभी कुछ होने, कभी कुछ न होने की चाहत
कभी राह गुज़रने, तो कभी जोने की चाहत
होंठों पर हँसी, तो आँखों में नमी की कभी चाहत
आसमां छू लेने, तो ज़मीं की कभी चाहत
चाहत किसी को चाहने, तो नज़रें चुराने की कभी चाहत
चाहत कभी नए, तो कभी बस पुराने की चाहत
बढ़े होने, तो कभी बचपन में रह जाने की चाहत
कभी लड़ पड़ने तो कभी सह जाने की चाहत
कभी बेपर्दा, तो कभी चिलमन में छुप जाने की चाहत
कभी दिल खोलने तो कभी चुप रह जाने की चाहत
चाहत ही शायद आदि, और अंत भी बस चाहत
चाहतों का चक्रव्यूह तोड़ना भी, तो आख़िर है चाहत
चाहतों में अंकित
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