साहिल पर बैठ आज, समंदर को देख फिर ख़्याल आया
समंदर की विशालता में ख़ुद को बड़ा ही नगण्य पाया
जाती है नज़र बड़ी दूर तलक, बस समंदर ही समंदर पाती है
विशालता नापने निकली थी, पर थक हार कर लौट आती है
कितनी असीम ये सृष्टि, और कितना सीमित ये ज्ञान है
सृष्टि के नगण्य भाग की भी, इसे नगण्य ही पहचान है
सुना है ज्ञान के दरवाज़े, अन्तर मन में होते हैं
आँखें कितनी ही बड़ी खोल लो, ज्ञान चक्षु सदा अंदर ही सोते हैं
बाहर क्या देखता है दीवाने, अंदर ही सीढ़ी उतरनी होगी
सोते चक्षुओं को जगाने, दरवाज़े पे दस्तक करनी होगी
शायद फिर ज्ञान का समंदर, ख़ुद में समां जायेगा
असीम सृष्टि में नगण्य है जो, फिर सृष्टि नगण्य और वो असीम हो जायेगा
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