ज़िन्दगी..
कभी बचपन के ताश के घर सी बनती चली जाती है
हर पत्ता घर बनाने की कोशिश, एक पत्ते में ढह जाती है
ज़िन्दगी..
कभी मेज़ सी भूलभुलैया नज़र आती है
लगा जब राह मिली बाहर की, राह तभी खो जाती है
ज़िन्दगी..
कभी मृगतृष्णा सी प्यासी नज़र आती है
तलाश एक बूँद की, रेगिस्तान में ठोकरें खाती है
ज़िन्दगी..
किसी कारवाँ सी चलती चली जाती है
मंज़िल भले कोई भी हो, पीछे छूटती जाती है
ज़िन्दगी..
कभी नींद के ख्वाब सी नज़र आती है
कितनी ही कोशिश करो पूरा करने की, अचानक से टूट जाती है
ज़िन्दगी..
कभी किनारे की रेत सी नज़र आती है
अंकित कुछ भी कैसा भी करो, लहर बहा ले जाती है
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