गंगा की शीतल धारा ने, एक टहनी को किनारे से मिला दिया
टहनी के उस मिलन ने, किनारे का दिल खिला दिया
लहरों के प्रवाह ने, दोनों को एक संग दिया
चाहत ने दोनों को, एक दूजे में रंग दिया
किनारे का सूनापन, टहनी ने भर लिया
टहनी के क़दमों को, किनारे ने धर लिया
गहराई में इतना, वो टहनी उतर गयी
प्रेम की एक एक जड़, किनारे में घर कर गयी
टहनी की रफ़्तार, एकदम से ही थम गयी
किनारे के आग़ोश में, टहनी यूँ जम गयी
बंजर किनारा था जो, अब उपवन हो चला
टहनी के लिए समर्पित, अब वो मन हो चला
सोचता है क्या होता, जो टहनी उसे न मिलती
अकेले दिल की बंजर ज़मीन, फिर इस तरह न खिलती
किनारे के कण कण में फिर, टहनी का ही वास हो गया
रिश्ता इत्तेफ़ाक से बना, ये दो दिलों का ख़ास हो गया
किनारा कभी चाहत की, गहराई नहीं बोल पाता है
कितने जज़्बात दबे दिल में, नहीं कुछ खोल पाता है
ख़ुश रहता है सोच कर, शायद टहनी जानती होगी
चाहत की गहराई को, वो शायद पहचानती होगी
किनारे पर,
अंकित
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