लौ है दीपक में, बाती में जलन है
रौशनी है जग में, सूरज में तपन है
प्यास बुझाती बारिश, बादल का झरता नयन है
आग़ोश में किनारे के लहरें, समंदर में विचलन है
देती है जीवन हवा, जीवन उसका भटकन है
चलते सांथ सुबह के सब, रात संग सूनापन है
अनगिनत सितारे आकाश में, हांसिल चाँद को अकेलापन है
मिलती हँसी होंठों को, किनारा आँख का नम है
लहरों सी होती ख़ुशी, समंदर जैसा ग़म है
लेता साँसें बहुत है दिल, जीता बहुत कम है
पानी पर अंकित
Sunday, November 18, 2018
Sunday, May 6, 2018
नाट्य
ज़िन्दगी बस एक पल में थम जाएगी
पात्र कितना ही खूब निभाओ, ना उसपे रहम ये खायेगी
ज़िन्दगी...
जो लाया था, वही सांथ चल रहा
अच्छा बुरा, ग़म और ख़ुशी में फल रहा
जो लिये जा रहा है, उसका तो कोई भान नहीं
क्या छूटेगा, क्या जायेगा सांथ, जब इसका ही कोई ज्ञान नहीं
ज्ञान अगर है, तो भी ज्ञान विमुख आचार है
ना दिशा कोई, ना क्रिया कोई, ना ही चिंता, ना विचार है
जिस नाट्य का पर्दा उठा कभी, वो पर्दा अवश्य गिरायेगी
ज़िन्दगी...
नाट्य ये कब से चल रहे, नाट्य ये चलते रहेंगे
पात्र बदलते रहे हैं, पात्र बदलते रहेंगे
पात्र निभाते निभाते, नए नाट्य की पात्रता बुन रहा
चक्र अनादि चल रहा जो, सांथ उसी का चुन रहा
नाट्य की पात्रता से, अपात्र गर बन जाये तो
नाट्य है कुछ और नहीं, ज्ञाता मात्र बन जाये तो
नाट्य लीला अविरत जो थी, आखिरी नाट्य बस आएगा
पात्रता के बंधन से जब, पात्र मुक्त हो जायेगा
गिरा जो पर्दा आखिरी, ना उसे फिर उठा पायेगी
समय के पदचिन्हों में यूँ, कहानी सर्वदा जम जाएगी
ज़िन्दगी...
नाट्य का पात्र
अंकित
पात्र कितना ही खूब निभाओ, ना उसपे रहम ये खायेगी
ज़िन्दगी...
जो लाया था, वही सांथ चल रहा
अच्छा बुरा, ग़म और ख़ुशी में फल रहा
जो लिये जा रहा है, उसका तो कोई भान नहीं
क्या छूटेगा, क्या जायेगा सांथ, जब इसका ही कोई ज्ञान नहीं
ज्ञान अगर है, तो भी ज्ञान विमुख आचार है
ना दिशा कोई, ना क्रिया कोई, ना ही चिंता, ना विचार है
जिस नाट्य का पर्दा उठा कभी, वो पर्दा अवश्य गिरायेगी
ज़िन्दगी...
नाट्य ये कब से चल रहे, नाट्य ये चलते रहेंगे
पात्र बदलते रहे हैं, पात्र बदलते रहेंगे
पात्र निभाते निभाते, नए नाट्य की पात्रता बुन रहा
चक्र अनादि चल रहा जो, सांथ उसी का चुन रहा
नाट्य की पात्रता से, अपात्र गर बन जाये तो
नाट्य है कुछ और नहीं, ज्ञाता मात्र बन जाये तो
नाट्य लीला अविरत जो थी, आखिरी नाट्य बस आएगा
पात्रता के बंधन से जब, पात्र मुक्त हो जायेगा
गिरा जो पर्दा आखिरी, ना उसे फिर उठा पायेगी
समय के पदचिन्हों में यूँ, कहानी सर्वदा जम जाएगी
ज़िन्दगी...
नाट्य का पात्र
अंकित
Thursday, March 22, 2018
आकार, निराकार, एकाकार
समंदर चाहतों का, एक बूँद हो रहा है
शायद से मौसम, अब धुंध खो रहा है
बूँद भी तो, अनगिनत चाहतें समेटे है
धुंध के आगोश में, मन अभी भी बैठे है
बूँद गर ये छोटी, और छोटी हो जाये
धुंध का घनत्व, सहज ही कम हो जाये
बूँद हो इतनी छोटी, कि छोटी न हो पाए
धुंध का अस्तित्व, फिर नगण्य हो जाये
इकलौती चाहत ही बस, बूँद में समाये
उस एक बूँद से, जन्मों की प्यास बुझ जाये
चाहत जिस पल में, वो साकार होगी
बूँद लिए आकार, जब निराकार होगी
धुंध का अस्तित्व, फिर तार तार हो जायेगा
इस पार और उस पार, एकाकार हो जायेगा
इस पार पे अंकित...
शायद से मौसम, अब धुंध खो रहा है
बूँद भी तो, अनगिनत चाहतें समेटे है
धुंध के आगोश में, मन अभी भी बैठे है
बूँद गर ये छोटी, और छोटी हो जाये
धुंध का घनत्व, सहज ही कम हो जाये
बूँद हो इतनी छोटी, कि छोटी न हो पाए
धुंध का अस्तित्व, फिर नगण्य हो जाये
इकलौती चाहत ही बस, बूँद में समाये
उस एक बूँद से, जन्मों की प्यास बुझ जाये
चाहत जिस पल में, वो साकार होगी
बूँद लिए आकार, जब निराकार होगी
धुंध का अस्तित्व, फिर तार तार हो जायेगा
इस पार और उस पार, एकाकार हो जायेगा
इस पार पे अंकित...
Tuesday, January 9, 2018
टहनी का किनारा
गंगा की शीतल धारा ने, एक टहनी को किनारे से मिला दिया
टहनी के उस मिलन ने, किनारे का दिल खिला दिया
लहरों के प्रवाह ने, दोनों को एक संग दिया
चाहत ने दोनों को, एक दूजे में रंग दिया
किनारे का सूनापन, टहनी ने भर लिया
टहनी के क़दमों को, किनारे ने धर लिया
गहराई में इतना, वो टहनी उतर गयी
प्रेम की एक एक जड़, किनारे में घर कर गयी
टहनी की रफ़्तार, एकदम से ही थम गयी
किनारे के आग़ोश में, टहनी यूँ जम गयी
बंजर किनारा था जो, अब उपवन हो चला
टहनी के लिए समर्पित, अब वो मन हो चला
सोचता है क्या होता, जो टहनी उसे न मिलती
अकेले दिल की बंजर ज़मीन, फिर इस तरह न खिलती
किनारे के कण कण में फिर, टहनी का ही वास हो गया
रिश्ता इत्तेफ़ाक से बना, ये दो दिलों का ख़ास हो गया
किनारा कभी चाहत की, गहराई नहीं बोल पाता है
कितने जज़्बात दबे दिल में, नहीं कुछ खोल पाता है
ख़ुश रहता है सोच कर, शायद टहनी जानती होगी
चाहत की गहराई को, वो शायद पहचानती होगी
किनारे पर,
अंकित
टहनी के उस मिलन ने, किनारे का दिल खिला दिया
लहरों के प्रवाह ने, दोनों को एक संग दिया
चाहत ने दोनों को, एक दूजे में रंग दिया
किनारे का सूनापन, टहनी ने भर लिया
टहनी के क़दमों को, किनारे ने धर लिया
गहराई में इतना, वो टहनी उतर गयी
प्रेम की एक एक जड़, किनारे में घर कर गयी
टहनी की रफ़्तार, एकदम से ही थम गयी
किनारे के आग़ोश में, टहनी यूँ जम गयी
बंजर किनारा था जो, अब उपवन हो चला
टहनी के लिए समर्पित, अब वो मन हो चला
सोचता है क्या होता, जो टहनी उसे न मिलती
अकेले दिल की बंजर ज़मीन, फिर इस तरह न खिलती
किनारे के कण कण में फिर, टहनी का ही वास हो गया
रिश्ता इत्तेफ़ाक से बना, ये दो दिलों का ख़ास हो गया
किनारा कभी चाहत की, गहराई नहीं बोल पाता है
कितने जज़्बात दबे दिल में, नहीं कुछ खोल पाता है
ख़ुश रहता है सोच कर, शायद टहनी जानती होगी
चाहत की गहराई को, वो शायद पहचानती होगी
किनारे पर,
अंकित
Sunday, January 7, 2018
नगण्य की असीमता
साहिल पर बैठ आज, समंदर को देख फिर ख़्याल आया
समंदर की विशालता में ख़ुद को बड़ा ही नगण्य पाया
जाती है नज़र बड़ी दूर तलक, बस समंदर ही समंदर पाती है
विशालता नापने निकली थी, पर थक हार कर लौट आती है
कितनी असीम ये सृष्टि, और कितना सीमित ये ज्ञान है
सृष्टि के नगण्य भाग की भी, इसे नगण्य ही पहचान है
सुना है ज्ञान के दरवाज़े, अन्तर मन में होते हैं
आँखें कितनी ही बड़ी खोल लो, ज्ञान चक्षु सदा अंदर ही सोते हैं
बाहर क्या देखता है दीवाने, अंदर ही सीढ़ी उतरनी होगी
सोते चक्षुओं को जगाने, दरवाज़े पे दस्तक करनी होगी
शायद फिर ज्ञान का समंदर, ख़ुद में समां जायेगा
असीम सृष्टि में नगण्य है जो, फिर सृष्टि नगण्य और वो असीम हो जायेगा
समंदर की विशालता में ख़ुद को बड़ा ही नगण्य पाया
जाती है नज़र बड़ी दूर तलक, बस समंदर ही समंदर पाती है
विशालता नापने निकली थी, पर थक हार कर लौट आती है
कितनी असीम ये सृष्टि, और कितना सीमित ये ज्ञान है
सृष्टि के नगण्य भाग की भी, इसे नगण्य ही पहचान है
सुना है ज्ञान के दरवाज़े, अन्तर मन में होते हैं
आँखें कितनी ही बड़ी खोल लो, ज्ञान चक्षु सदा अंदर ही सोते हैं
बाहर क्या देखता है दीवाने, अंदर ही सीढ़ी उतरनी होगी
सोते चक्षुओं को जगाने, दरवाज़े पे दस्तक करनी होगी
शायद फिर ज्ञान का समंदर, ख़ुद में समां जायेगा
असीम सृष्टि में नगण्य है जो, फिर सृष्टि नगण्य और वो असीम हो जायेगा
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