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Tuesday, January 9, 2018

टहनी का किनारा

गंगा की शीतल धारा ने, एक टहनी को किनारे से मिला दिया
टहनी के उस मिलन ने, किनारे का दिल खिला दिया

लहरों के प्रवाह ने, दोनों को एक संग दिया
चाहत ने दोनों को, एक दूजे में रंग दिया

किनारे का सूनापन, टहनी ने भर लिया
टहनी के क़दमों को, किनारे ने धर लिया

गहराई में इतना, वो टहनी उतर गयी
प्रेम की एक एक जड़, किनारे में घर कर गयी

टहनी की रफ़्तार, एकदम से ही थम गयी
किनारे के आग़ोश में, टहनी यूँ जम गयी

बंजर किनारा था जो, अब उपवन हो चला
टहनी के लिए समर्पित, अब वो मन हो चला

सोचता है क्या होता, जो टहनी उसे न मिलती
अकेले दिल की बंजर ज़मीन, फिर इस तरह न खिलती

किनारे के कण कण में फिर, टहनी का ही वास हो गया
रिश्ता इत्तेफ़ाक से बना, ये दो दिलों का ख़ास हो गया

किनारा कभी चाहत की, गहराई नहीं बोल पाता है
कितने जज़्बात दबे दिल में, नहीं कुछ खोल पाता है

ख़ुश रहता है सोच कर, शायद टहनी जानती होगी
चाहत की गहराई को, वो शायद पहचानती होगी

किनारे पर,
अंकित

Sunday, January 7, 2018

नगण्य की असीमता

साहिल पर बैठ आज, समंदर को देख फिर ख़्याल आया
समंदर की विशालता में ख़ुद को बड़ा ही नगण्य पाया

जाती है नज़र बड़ी दूर तलक, बस समंदर ही समंदर पाती है
विशालता नापने निकली थी, पर थक हार कर लौट आती है

कितनी असीम ये सृष्टि, और कितना सीमित ये ज्ञान है
सृष्टि के नगण्य भाग की भी, इसे नगण्य ही पहचान है

सुना है ज्ञान के दरवाज़े, अन्तर मन में होते हैं
आँखें कितनी ही बड़ी खोल लो, ज्ञान चक्षु सदा अंदर ही सोते हैं

बाहर क्या देखता है दीवाने, अंदर ही सीढ़ी उतरनी होगी
सोते चक्षुओं को जगाने, दरवाज़े पे दस्तक करनी होगी

शायद फिर ज्ञान का समंदर, ख़ुद में समां जायेगा
असीम सृष्टि में नगण्य है जो, फिर सृष्टि नगण्य और वो असीम हो जायेगा