Pages

Friday, March 3, 2017

अन्वेषण

असीम की विराटता में सूक्ष्म हो जाऊं
गुम हो जाऊं अंतर में यूँ, ख़ुद को पा जाऊं।

पवन की थपकियों से निर्विरोध हो जाऊं
जहाँ मर्ज़ी पवन बहे, बस उड़ता चला जाऊं।

पड़ें जो किरणें सूरज की, न अवरोध बन पाऊँ
दर्प ना किसी बात का, दर्पण हो जाऊं।

भीगूँ बारिश में जो, पिघलता चला जाऊं
जल का जल से संगम ज्यों, जलमग्न हो जाऊं।

ज़मीं से रहूँ जुड़ा सदा, पग दंभ न भर पाऊं
माटी का पुतला ही भले, माटी ना बन पाऊँ।

अग्नि हो प्रचंड कदाचित, उसमे न जल पाऊँ
जितना तपूं, उतना निखरूँ, कुंदन बन जाऊँ।

No comments:

Post a Comment