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Friday, March 3, 2017

आग़ोश

समन्दर की गर्जना किनारे को देहला देती है
लहरों की भीषणता किनारे को हिला देती है।
पर किनारा कब समन्दर से मुँह मोड़ता है
हर लहर का आवेग अपनी बाँहों में तोड़ता है।
जितना ज़्यादा कोपित हो समन्दर, उतनी ही बाँहें किनारे की फ़ैल जाती हैं।
ज़ख़्मी कितना ही करें लहरें, आख़िर आग़ोश में सिमट जाती हैं।

अन्वेषण

असीम की विराटता में सूक्ष्म हो जाऊं
गुम हो जाऊं अंतर में यूँ, ख़ुद को पा जाऊं।

पवन की थपकियों से निर्विरोध हो जाऊं
जहाँ मर्ज़ी पवन बहे, बस उड़ता चला जाऊं।

पड़ें जो किरणें सूरज की, न अवरोध बन पाऊँ
दर्प ना किसी बात का, दर्पण हो जाऊं।

भीगूँ बारिश में जो, पिघलता चला जाऊं
जल का जल से संगम ज्यों, जलमग्न हो जाऊं।

ज़मीं से रहूँ जुड़ा सदा, पग दंभ न भर पाऊं
माटी का पुतला ही भले, माटी ना बन पाऊँ।

अग्नि हो प्रचंड कदाचित, उसमे न जल पाऊँ
जितना तपूं, उतना निखरूँ, कुंदन बन जाऊँ।