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Tuesday, February 12, 2019

चाहत

चाहत, कितनी अजीब होती चाहत
शायद न कोई इतना, जितनी अज़ीज़ होती चाहत

चाहत कभी ज़्यादा की, तो कभी कम की चाहत
चाहत कभी ख़ुशी की, तो कभी ग़म की चाहत

चाहत कभी पाने की, तो कभी खोने की चाहत
कभी खिलखिलाकर हँसने की, तो कभी रोने की चाहत

कभी कुछ होने, कभी कुछ न होने की चाहत
कभी राह गुज़रने, तो कभी जोने की चाहत

होंठों पर हँसी, तो आँखों में नमी की कभी चाहत
आसमां छू लेने, तो ज़मीं की कभी चाहत

चाहत किसी को चाहने, तो नज़रें चुराने की कभी चाहत
चाहत कभी नए, तो कभी बस पुराने की चाहत

बढ़े होने, तो कभी बचपन में रह जाने की चाहत
कभी लड़ पड़ने तो कभी सह जाने की चाहत

कभी बेपर्दा, तो कभी चिलमन में छुप जाने की चाहत 
कभी दिल खोलने तो कभी चुप रह जाने की चाहत

चाहत ही शायद आदि, और अंत भी बस चाहत
चाहतों का चक्रव्यूह तोड़ना भी, तो आख़िर है चाहत

चाहतों में अंकित