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Thursday, April 21, 2016

एक रात, बस यूँही

स्याह सी रात के हमसफ़र कुछ तारे हैं
जागते जागते इस रात के संग ये भी देखो अब हारे हैं।
कुछ तो काली चादर तानकर आसमान की गोद में दुबक चुके
कुछ करवटें बदल बदल, आँखों को मसल मसल, टिमटिमाने की कोशिश में लगे हुए हैं।

पर रात की इस घड़ी में अच्छे अच्छों की हिम्मत बोल जाती है
कोई कितना भी महारथी हो, ये घड़ी उसकी पोल खोल जाती है।
देखते हैं ये मदहोश से तारे कितनी हिम्मत दिखाते हैं
ज़र्रा ज़र्रा तो सो चुका है, ये बेचारे कब तक जाग पाते हैं।

एक एक करके लो सारे के सारे सो गए
आसमां में चमके थे जो, आसमां में ही खो गए।
हर कण अब, हर क्षण अब, निंद्रा के आलिंगन में है
जाने क्या मगर, इन दो नयनों के मन में है।
छोड़ गए सब सांथ, थे जो हमसफ़र इस रात के
सांथ ना छोड़ते नयन, जाने ये किस ठन में हैं।

ना ही उद्वेलन मन में कोई, ना ही कोई जिज्ञासा है
ना ही प्रयोजन जागने का, ना ही बंधी कोई आशा है।
निष्प्रयोजन निःस्वार्थ जुड़ा ये बंधन मन को भा रहा है
बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने, चलने में मज़ा आ रहा है।

देख रहा हूँ मैं रात की चाल, है उसकी नज़र मुझ पर भी
सोच रही है सब पर हो चुका, हो कुछ तो असर मुझ पर भी।
मदहोश हुए तारों की तरह, मैं भी मदहोश हो जाऊँ
चलूँ बस दो चार कदम, और थक कर फ़िर सो जाऊँ।

सोचता हूँ,
इतनी दूर तलक आ चुका हूँ, क्या अब मैं सांथ छोड़ दूँ
हमसफ़र का स्याह रात से, बना रिश्ता क्या तोड़ दूँ।
पता नहीं फ़िर कब ये आँखें, अपनी ज़िद पर आयेंगी
टिमटिमाते तारों से, जागने की शर्त लगायेंगी।

उम्मीद है कि फ़िर मिलेंगे, अब अलविदा हमसफ़र को कहता हूँ
सुबह भी धीरे धीरे बस चादर उठा रही है, चलो बहुत हुआ, अब अपनी चादर मैं ओढ़ लेता हूँ।

नींद के इंतज़ार में, 
अंकित